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उद् यमी नर

प्रश्‍न: आपके अनुसार स्वर्ग से क्या तात्पर्य है ? धरती को स्वर्ग कौन और कैसे बना सकता है ?

उत्तर-उद्‌यमी नर कविता में स्वर्ग से तात्पर्य ऐसे स्थान से है जहाँ सभी को समान रूप से अपने परिश्रम का फल मिलता है, जहाँ हर तरह की सुख-सुविधाएँ हों। जहाँ मानव शांतिपूर्वक जीवन यापन करे।

धरती को स्वर्ग मानव अपनी मेहनत द्‌वारा बना सकता है। जिस तरह से वैज्ञानिकों ने अपनी मेहनत के बल पर नए-नए अनुसंधानों की खोज की और हम मानवों को सुख-सुविधाएँ प्रदान की, ठीक इसी तरह से हम भी पृथ्‍वी को स्वर्ग बनाने में अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं।यदि समाज में शोषण समाप्त होकर समानता का आदर्श स्थापित हो तो धरती स्वर्ग से भी सुन्दर बन  सकती है। प्रश्‍न – ईश्‍वर द्‌वारा छिपाए तत्‍व को कौन, किस प्रकार पा सकता है ? प्रकृति किससे हारती है ?

उत्तर-ईश्‍वर द्‌वारा छिपाए तत्‍व को कर्मशील प्राणी अपने कर्मों, परिश्रम एवं संघर्षों के द्‌वारा पा सकता है।ये उन लोगों को प्राप्त नहीं हो सकते जो मेहनत नहीं करना चाहते। 

अपनी भुजाओं की शक्ति से मनुष्य ने पृथ्वी में छिपे अपने सुख के सभी तत्वों को खोज निकाला है। कवि के शब्दों में-

छिपा दिए सब तत्‍व आवरण के नीचे  ईश्‍वर ने, संघर्षों से ख़ोज निकाला उन्हें उद्‍यमी नर ने

 प्रकृति उद्‍यमी नर से हारती है। वह अपने उद्‍यम द्‌वारा प्रकृति को अर्थात अपने भाग्य को भी अपनी इच्‍छानुसार रचता है। वह भाग्‍यवादी इंसान के सामने नहीं बल्कि कर्मवादी इंसान के सामने झुकती है।ब्रह्मा ने इन्सान के भाग्य में कुछ नहीं लिखा है, वह तो अपना भाग्य खुद ही लिखता है। उदाहरणार्थ:

प्रकृति नहीं डर कर झुकती है, कभी भाग्य के बल से,

सदा हारती वह मनुष्‍य के उद्‌यम से, श्रमजल से।
ब्रह्‌मा का अभिलेख पढ़ा करते निरुद्‌यमी प्राणी
धोते वीर कुअंक भाल का बहा ध्रुवों से पानी।

प्रश्‍न – भाग्यवाद और शस्‍त्र किसका आवरण है ? कवि के अनुसार नए समाज का भाग्य क्या है ? सोदाहरण स्‍पष्‍ट करें।

  उत्तर –   भाग्‍यवाद पाप का आवरण है और शस्‍त्र शोषण का। कवि कहते हैं कि जो कामचोर होते हैं वे भाग्य के भरोसे रहते हैं और ऐसे लोग भाग्य का आवरण डालकर पाप कर्म करते हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए,भाग्यवाद जैसे शस्त्रों का सहारा लेकर असहाय लोगों का शोषण करते हैं और असमान धन वितरण को बल प्रदान कर सामाजिक विषमताओं को जन्म देते हैं। 

          कवि के अनुसार नर समाज का भाग्य मानव का श्रम है, उसका बाहुबल है। कवि कहते हैं कि जो व्यक्‍ति परिश्रमी होते हैं वे अपने परिश्रम के बल पर असंभव कार्य को भी संभव कर दुनिया को अपने अनुसार बना लेते हैं । कवि की दृष्टि में मानव – समाज का भाग्य एक समान ही होना चाहिए जिससे कि कर्म करने वालों को उनके श्रम का उचित फल मिले।                                      प्रश्‍न 1.आवरण शब्द का अर्थ क्या है? भाग्यवाद को पाप का आवरण क्यों कहा गया है।

उत्तर – आवरण का अर्थ है पर्दा। अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए धनी व्यक्ति भाग्यवाद का सहारा लेते हैं, इससे वे अपने पापों को छिपाते हैं। इसलिए भाग्यवाद को पाप का आवरण कहा गया है। भाग्यवाद का आश्रय लेकर अमीर,महाजन एवं जमींदार ये सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि ईश्वर ने गरीबों को कष्ट सहने के लिए ही पैदा किया है। अमीरों की इसी सोच से गरीब इसे अपने भाग्य का लेखा समझकर दिन-रात खटते हैं और अमीर उनके हिस्से की खुशियाँ भाग्य का प्रतिफल कहकर लूटते हैं। वे भाग्य को अपने अनुकूल और गरीबों के प्रतिकूल बताकर अपने आलस्य एवं कुत्सित भावनाओं को छिपाते हैं।

प्रश्‍न 2.शोषण शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है? समझाकर लिखिए।

उत्तर – शोषण अर्थात् किसी पर अत्याचार करना। यहाँ भाग्यवाद को कवि ने शोषण के शस्त्र यानि हथियार के रूप में दिखाया है। भाग्यवादी शोषित एवं सर्वहारा वर्ग का शोषण करते हैं, उनकी मेहनत का फल खुद भोगते हैं। भाग्यवाद का सहारा लेकर वे उनके अधिकार का सुख छीन लेते हैं और जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली उक्ति को चरितार्थ कर अपने बल से गरीबों का शोषण करते हैं। उन्हें दबाकर रखते हैं और उनके गले पर छुरी फेर कर उनके मन में यह बात भर देते हैं कि ये सब कुछ उन्हें अपने भाग्य के कारण सहना पड़ रहा है। इसतरह बड़ी चालाकी से भाग्यवाद को शोषण का शस्त्र बनाकर निर्धनों को लूटा जाता है।

प्रश्‍न 3. कवि ने भाग्य एवं कर्म में किसे अधिक शक्तिशाली माना है और क्यों?

उत्तर – कवि ने भाग्य की अपेक्षा कर्म को अधिक शक्तिशाली माना है। मनुष्य अपने बाहुबल से, अपना पसीना बहाकर प्रकृति के भीतर छिपे तत्वों को ढूँढ निकालता है। उसके परिश्रम के आगे धरती एवं आसमान भी झुक जाते हैं और वह अपने सारे इच्छित सुख भोग सकता है। यदि भाग्य या विधि अंक प्रबल होता तो धरती अपने आप अपने गर्भ में छिपे सारे रत्न क्यों नहीं उगल देती?
धरती अपने आप ही अनाज उगा देती और हमें मेहनत ही नहीं करनी पड़ती।

प्रश्‍न 4. यह संसार उद्यमी लोगों के बल पर ही चलता है, और सुख पाता है। समझाकर लिखिए।

उत्तर- यह बिल्कुल सत्य है कि यह संसार उद्यमी लोगों के बल पर ही चलता है। उद्यमी नर ही इस संसार में सुख पाते हैं और आलसी, अकर्मण्य और कामचोर लोग सुखभोग से वंचित रह जाते हैं। वे सिर्फ भाग्यवाद का सहारा लेकर दूसरों को ठग सकते हैं। विधाता के लिखे लेख को ज्योतिषियों द्वारा पढ़ने का प्रयास कर सकते हैं परन्तु कुछ पाने के लिए कुछ कर नहीं सकते। उद्यमी नर अपने परिश्रम से सफलता प्राप्त करते हैं, अपने भुजबल से वे सारे सुख-वैभव प्राप्त कर सकते हैं। ईश्‍वर ने नर समाज को एक जैसा भाग्य दिया है पर सिर्फ उद्यमी नर ही अपनी मेहनत से प्रकृति के गर्भ में छिपे खजाने को ढूँढ निकालते हैं और उनका उपभोग कर पाता है।
प्रकृति कभी किसी भाग्यवादी के सामने नहीं झुकती। वह मेहनती व्यक्तियों के आगे ही झुकती है और उसके आगे सारे खज़ाने खोल कर रख देती है। जिससे उद्यमी नर खुद भी सुख भोगते हैं और इस धरती को भी स्वर्ग बना सकते हैं इसलिए कवि का मानना है कि जिसने अपना श्रमजल दिया, उसे पीछे पीछे मत रह जाने दो। उसे सुख भोगने का अधिकार पहले मिलना चाहिए। 


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